
एवरेस्ट के पहले अभियान का आखरी दीपक बुझा !
सर एडमंड हिलेरी और तेनजिंग नोर्गे के साथ 1953 के एवरेस्ट अभियान के अंतिम जीवित सदस्य,कांचा शेरपा का निधन नेपाल के काठमांडू स्थित उनके आवास पर 92 वर्ष की आयु में हो गया। उन्होंने 16 अक्टूबर को अपनी अंतिन साँस ली।
काठमांडू (नेपाल), 18 अक्टूबर 2025 ! एवरेस्ट के पहले अभियान का आखरी दीपक भी बुझ गया। सर एडमंड हिलेरी और तेनजिंग नोर्गे के साथ 1953 के एवरेस्ट अभियान के अंतिम जीवित सदस्य,कांचा शेरपा का निधन नेपाल के काठमांडू स्थित उनके आवास पर 92 वर्ष की आयु में हो गया। उन्होंने 16 अक्टूबर को अपनी अंतिन साँस ली।
परिवार के अनुसार, आंग फुर्बा ‘कांचा’ शेरपा ने गुरुवार तड़के लगभग 2:00 बजे अंतिम साँस ली। उन्होंने अपने अंतिम दिन नामचे बाजार स्थित अपने पुश्तैनी घर में बिताये, जिसे एवरेस्ट का प्रवेश द्वार माना जाता है।
नेपाल पर्वतारोहण संघ (एनएमए) के अध्यक्ष फुर ग्याल्जे शेरपा ने कहा, “हम कांचा शेरपा के निधन पर गहरा दुःख व्यक्त करते हैं। वह 1953 में माउंट एवरेस्ट की पहली सफल चढ़ाई के अंतिम जीवित सदस्य थे। नेपाली पर्यटन उद्योग इस ऐतिहासिक और दिग्गज व्यक्तित्व के खोने का शोक मना रहा है। उनकी अनुपस्थिति एक अपूरणीय रिक्तता छोड़ गयी है !
1932 में नामचे में जन्मे ‘कांचा’ शेरपा ने 19 वर्ष की आयु में अपना पर्वतारोहण करियर शुरू किया, जब वे घर से भागकर काम की तलाश में दार्जिलिंग जा पहुँचे। वहाँ उनकी मुलाकात तेनजिंग नॉर्गे से हुई, जिन्होंने उन्हें 1952 के तिब्बत से आये एवरेस्ट अभियान में शामिल एक पर्वतारोही के बेटे के रूप में पहचाना। उनकी लगन से प्रभावित होकर, तेनजिंग ने उन्हें सर एडमंड हिलेरी के 1953 के अभियान में 103 शेरपाओं में से एक के रूप में शामिल होने में मदद की, जहाँ उन्हें प्रतिदिन पाँच रुपये की मजदूरी मिलती थी।
कांचा शेरपा ने 1973 तक पर्वतारोहण अभियानों में काम जारी रखा, तत्पश्चात अपनी पत्नी के आग्रह पर सेवानिवृत्ति ले ली। बाद में उन्होंने ट्रेकिंग समूहों के साथ काम किया, हिमालय के रास्तों पर यात्रियों का मार्गदर्शन किया, लेकिन अत्यधिक ऊँचाई तक नहीं गये।
कांचा शेरपा शिखर तक नहीं पहुँच पाए, लेकिन उन्होंने अभियान की सफलता में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। वे अंतिम शिविर तक पहुँचे, जो वर्तमान में “साउथ समिट” (दक्षिण शिखर) के नाम से जाना जाता है।
2020 में नेपाल की सरकारी समाचार एजेंसी राष्ट्रिया समाचार समिति को दिए एक साक्षात्कार में कांचा ने अभियान के शुरुआती दिनों को याद किया था। शेर्पा ने बताया, ” भक्तपुर से 35 पर्वतारोहियों और लगभग 400 कुलियों का एक दल रवाना हुआ, जो भारी सामान पैदल लेकर चलते थे। हर दिन लगभग 100 लोगों का एक जत्था। “वहाँ कोई सड़कें नहीं थीं, न होटल ! सिर्फ पगडंडियाँ थीं और खाने के लिए भुना हुआ मक्का।”
उनके दल को नामचे बाज़ार पहुँचने में 16 दिन लगे। वहाँ से केवल पर्वतारोही और स्थानीय शेरपा याकों के सहारे आगे बढ़े और छह दिन बाद एवरेस्ट बेस कैंप पहुँच गये। उनके सामान में, कांचा के अनुसार, 25 थैले तो सिर्फ अभियान के खर्चों के लिए नकदी से भरे हुए थे।
सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक थी कैम्प 1 तक पहुँचने का रास्ता बनाना। खुम्बु आइसफॉल में टीम को एक विशाल दरार (क्रेवास) मिली, जिसे पार करने का कोई रास्ता नहीं था। “हमारे पास सीढ़ियाँ नहीं थीं। इसलिए हम नामचे वापस गये, दस चीड़ के पेड़ काटे, उन्हें ऊपर तक उठाकर लाये और एक लकड़ी का पुल बनाया,” कांचा ने राज्य समाचार एजेंसी को बताया।
उन्होंने यह भी बताया कि उस समय एवरेस्ट को नेपाली में अभी तक आधिकारिक रूप से ‘सागरमाथा’ नहीं कहा जाता था — स्थानीय लोग इसे ‘चोमोलुंगमा’ के नाम से जानते थे।
कैम्प 4 स्थापित करने के बाद, हिलेरी और तेनजिंग ने अपनी चढ़ाई जारी रखी। कैंप 4 स्थापित करने के बाद, हिलेरी और तेनजिंग ने अपनी चढ़ाई जारी रखी। 29 मई, 1953 को दोपहर को उनकी सफलता की पुष्टि हुई।
“हम नाचे, गले मिले, और खुशी से झूम उठे। यह शुद्ध आनंद का क्षण था,” कांचा ने याद किया। उन्होंने या भी याद किया -अपने प्रयासों के लिए, उन्हें प्रति दिन आठ रुपये का भुगतान किया गया।
वर्तमान में उनका परिवार नामचे बाजार में पर्वतारोहियों के लिए होटल का संचालन करता है।